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पलायन

एक बार एक व्यक्ति का संसार से मन ऊब गया । उसको लगा भौतिक आपाधापी उसके लिए नहीं है । उसने घर नगर छोड़ दिया, और किसी शांत जगह जाकर बस गया । धीरे धीरे उसको “ज्ञान” की प्राप्ति हुई और उसको लगने लगा  कि बिना बांटे कुछ भी प्राप्त करने का क्या अर्थ ? तब उसने एक आश्रम स्थापित किया और विभिन्न विषयों पर ज्ञान बांटना शुरू किया । उसके प्रयासों से एक पंथ का निर्माण हुआ और उसकी प्रसिद्धि जगह जगह फैलने लगी। धीरे धीरे उसको एक चिंता सताने लगी । उसके जाने के बाद उसके आश्रम और संपत्ति का क्या होगा ? उसने एक उत्तम उत्तराधिकारी की तलाश शुरू की। बिना इसके उसकी सालों की अर्जित की हुई विरासत के नष्ट हो जाने का खतरा था । उसके पास तरह तरह के प्रलोभन और प्रस्ताव आने लगे। नींद तो उसकी जा ही चुकी थी । एक दिन रात में उसको यह विचार आया कि क्या होते होते क्या हो गया । वह सोचने लगा । “मेरी आत्मज्ञान की यात्रा कैसे रत्न जड़ित आध्यात्मिक प्रासाद में विलीन हो गई । जितनी कुटिलता एक सादा गृहस्थ जीवन जीने में भी न उपयोग होती उससे कहीं अधिक तो मैंने इस आध्यात्मिक पथ पर लगा दी ।” लेकिन पीछे जाना अब उसके लिए संभव नहीं था । एक सन्यासी की आम जीवन में पुनः वापसी पर कितनी भर्त्सना होगी ? उसकी वर्षों की अर्जित की हुई देवतुल्यता का ह्रास हो जाएगा । अनुयायियों का क्या होगा ? जिस जगत को मिथ्या समझकर उसने सन्यास ग्रहण किया था , अब वही जगत उसके आध्यात्मिक पथ को मिथ्या बताएगा । परमात्मा क्या , वह तो स्वयं से भी बहुत दूर हो चुका था । उसको बात समझ में आ गई । पीछे तो लेकिन वो जा नहीं सकता था ? और गया भी नहीं।

गृहस्थ हो या सन्यासी , ऐसा कौन है , ऐसा क्या है जो अस्तित्व के नियमों के अधीन नहीं है ?

अपने सत्य से कौन यहाँ भाग सका है ?

जितनी भौतिकता किसी शहर में ईंट पत्थर के बने मकान में है उतनी ही किसी दुर्गम पहाड़ी पर बने आश्रम में भी है। तत्त्व एक ही है। इसी प्रकृति से युक्त है।

मनुष्य उसका त्याग कर सकता है जिसका स्रोत वह स्वयं हो । जो अपना है ही नहीं उसका त्याग करना बस ढोंग है। प्राणों का प्रवाह , शरीर की आंतरिक गतिविधियां , अस्तित्व के नियम इत्यादि , मनुष्य की आज्ञा पर निर्भर नहीं हैं । कुछ है जो हमेशा से है , उसी ने मनुष्य को जन्म दिया है । जब अपने उद्गम का ही ज्ञान नहीं , जब अंत का कुछ पता नहीं , तब प्रथम से अंतिम श्वास के मध्य त्याग का खेल करना बस अपने अहं को पोषण देना है । जिसको अधिकांशतः आध्यात्मिक पथ समझा जाता है , पलायन उसका मुख्य बिन्दु है । जीवन के सत्य को जो देख लेता है उसके लिए भीड़ भाड़ वाले बाज़ार और एकांत में बने आश्रम में कोई भेद नहीं होता है । जो सम हो गया वही सन्यासी है । उसके अंदर परिस्थितियों के प्रति , सुख दुख समेत समस्त द्वैत के प्रति समता और स्वीकार्यता है । उसको पता है कि इधर से उधर भागना अस्थायी शांति ही देगा । वह जानता है कि भीतर और बाहर की किसी भी दौड़ में अपने केंद्र में निरंतर स्थित रहना ही सन्यास है , यही धार्मिकता है , यही बोध है ।

कबीरदास कहते हैं – “माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । भागता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ” ॥

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सब नश्वर है इसलिए मुस्कुराओ

नश्वरता का बोध होना कोई नकारात्मक बात नहीं है। इसी बोध से बुद्ध जन्म लेते हैं । इसी बोध में मुक्ति है। मुक्ति नहीं भी हो तो भी मार्ग यहीं से मिलता है। स्वयं को अस्तित्व का केंद्र समझ लेना फिर भी मूर्खता है।  भीतर यह बात बैठ जाये कि जो है वो तभी तक है जब तक मैं हूँ। मेरे कष्ट , सुःख , दुःख , धर्म , जाति इत्यादि विभाजन , मान्यताएं , प्रथाएं , विचारधाराएँ  मेरे न होने पर मेरे लिए अर्थहीन हो जाएंगे। जिन्होंने मेरे मन में इतने अर्थ भर दिए वे भी या तो अर्थहीन हो चुके हैं या हो जाएंगे।

अस्थायी से मन उचटने के बाद जीवन रूपांतरित होगा। बंधन स्पष्ट  होंगे। ऊर्जा सृजनात्मक होगी। विवेक संसार द्वारा अनिवार्य माने जानी वाली बातों को नकारना आरम्भ करेगा। छोटे छोटे झगड़े-बहस , अखबारों की बातें , प्रतिस्पर्धा में लगे लोग , सभ्यताओं के टकराव इत्यादि कोई अर्थ नहीं रखेंगे। रखेंगे भी तो एक खेल के खंड के रूप में।

महत्त्व बस एक बात का बचेगा। अपनी चेतना का।  वही सबसे निकट , शाश्वत और शुद्ध प्रतीत होती है। सब बदलता रहा लेकिन यह नहीं बदली।  जो इस चेतना की शुद्धता को अवरुद्ध करेगा , वह छंट कर अलग हो जाएगा। अब जो कर्म  होंगे , इसी के लिए और इसी से होंगे। अब त्याग और भोग का द्वन्द नहीं है। यही यात्रा है , यहीं मुक्ति है। कल हो न हो का प्रश्न नहीं है , पता है कि अगले क्षण भी ऐसा कुछ होगा जो अभी नहीं है।

नश्वरता के बोध से किसी की प्रगति नहीं रुकती है , बस प्रगति का अर्थ स्पष्ट होता है। बोध कभी भी भीड़ को नहीं होता है , व्यक्ति को होता है । सत्य के साथ जीना ही सकारात्मकता है ।

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वर मांगो

“वत्स , वर मांगो । जो चाहो मांग लो ।”

” ठीक है प्रभु , इतने वर्षों से मांग ही रहे हैं , फिर मांग लेते हैं । कुछ रह जाएगा तो अगली बार ।”

मांगने में कोई समस्या नहीं है । जो है , उसे इच्छा भी होगी । कोई इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए कर्म करेगा , कोई प्रार्थना , कोई दोनों करेगा । लेकिन ये प्रार्थना कैसी हो ? मांगने वाला कैसा हो ?

वर देने वाले को भी पता है कि मांगने वाले का क्षेत्र सीमित है । इसीलिए वो खुल के देता है । अहं के केंद्र से संचालित व्यक्ति क्या मांगेगा ? धन , समृद्धि , परिवार, स्वास्थ्य , आयु , संतान , शक्ति , प्रसिद्धि , बस , यही सब । वही पुराना । बात बस इन्ही सब में घूमकर खत्म हो जाती है । धर्म , देश , काल कोई भी हो – मांग एक जैसी ही होती है । कम से कम इस आधार पर विश्व बंधुत्व के सिद्धांत की पुष्टि हो जाती है । सब एक हैं । क्योंकि सबके मन भी एक ही हैं । बाहरी विभाजन बस दिखावा हैं , भीतरी मांगें सभी की एक जैसी ही हैं ।

आम इच्छाओं की यही समस्या है कि वो मन को अस्थाई में घुमाती रहती हैं । इच्छाएं तो असीमित हैं लेकिन असीम की नहीं हैं । वही चक्र है । कभी कभी किसी नचिकेता जैसे की कथा आ जाती है । नचिकेता कुछ नया मांग लेता है । यमराज उसको संसार में उपलब्ध उच्चतम से उच्चतम प्रलोभन देता है लेकिन नचिकेता खेल समझ चुका होता है । उसको शाश्वत में रुचि है । ऐसे ही ययाति भी अंततः भोग भोगकर थक जाता है , उसी चक्र में अमर्त्य होने की निरर्थकता वो समझ जाता है । याज्ञवल्क्य भी कात्यायनी और मैत्रेयी में अपनी संपत्ति बांटकर जाना चाहते हैं लेकिन मैत्रेयी भी खेल समझ चुकी हैं , उनको भी अल्पकालिक में रुचि नहीं है । वे याज्ञवल्क्य से पूछती हैं कि क्या यह सब पाकर मुझे अमरता प्राप्त हो जाएगी ? यदि नहीं तो इस सब का क्या औचित्य ? तो किस बात की प्रार्थना की जाए ?

जब मनुष्य ने अपने आप को विभिन्न इच्छाओं में विभाजित न किया हो तो तब उसकी ऊर्जा बचे । तब प्रार्थना में शक्ति हो । जब इच्छा ही सत्य को समर्पित हो तब कुछ घटे , क्योंकि तब ही अहं विलीन होगा । किसको पता है कि उसके लिए क्या श्रेष्ठ  है ? किसको यहाँ अस्तित्व के नियमों की समझ है ? जब अंतर्दृष्टि ही अहं से प्राच्छादित है तो इच्छा कैसे सही होगी ? जब मांगने वाला ही अज्ञान के केंद्र से संचालित है तब मांगते रहने का क्या अर्थ है ? प्रार्थना तब ही सार्थक है जब मांगने वाला जागृत अवस्था में हो । और मांगने वालों ने परमात्मा से भी बड़ा व्यापारिक संबंध रखा है । परमात्मा का अर्थ ही तब है यदि वह कुछ दे सकता हो । उसे तरह तरह के प्रलोभन दिए जाएंगे जिससे उसके निर्णय मनवांछित हों । मनुष्य ने ईश्वर को अपनी छवि में निर्मित कर दिया है । यहाँ प्रेम का कोई स्थान नहीं है । जो मिल गया उसके लिए कृतज्ञता नहीं है ।

जो ऊंचाई से आकृष्ट नहीं वो क्यों उड़ना चाहेगा ? जिसे अज्ञान ही अर्थपूर्ण लगे वो क्यों मुक्त होना चाहेगा ? जब अस्थायी की ही मांग है , तो शांति कैसे शाश्वत होगी ? ऐसे ही थोड़ी बार बार महिषासुर देवताओं को पराजित करते रहते हैं । जब मन पुराना है , मांग पुरानी है , तो परिणाम भी पुराने होंगे । कोरोना की समस्या वैश्विक थी । उस समय एकत्व था । उस समय परस्पर निर्भरता का बोध था । प्रार्थना भी सभी के कल्याण की थी । जीवन की क्षणभंगुरता अपने ,और बगल वाले घर से होकर मन तक पहुँच गई थी । फिर समय बदला , और प्रार्थनाएं भी पहले जैसी ही हो गईं । वो अवसर छूट गया ।

आजकल एक और प्रथा चली है , manifestation की ।  प्राकट्य  का व्यापार ही चल पड़ा है । जो चाहो मांगते रहो , और मानते रहो की मिल ही गया है । इस पद्यति में यह फायदा है कि इससे देने वाले का बोझ भी कम हो जाएगा ।

तो प्रार्थना कौन सी उत्तम है ? जो खेल से मुक्ति से संबंधित हो । तुमसे पहले भी इतनों ने मांगा । उनको मिला , लेकिन हाथ अंततः खाली ही रहे । देने वाले का खेल ही चल पा रहा है क्योंकि मांगें वही पुरानी हैं ,कोई surprise element या नवीनता नहीं है । नचिकेता नहीं manifest हो रहे आजकल ।

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HINDI POETRY

चमत्कार

उम्मीद पर दुनिया का कायम होना चमत्कार है।
साँसों का अनवरत प्रवाह चमत्कार है।

आत्म विध्वंस के इतने प्रयास के बाद भी अस्तित्व का अस्तित्व होना चमत्कार है।

पशुओं के प्राण लेकर पशुपतिनाथ  से आशीष की अपेक्षा रखना चमत्कार है । 

प्रतिदिन मृत्यु का नृत्य हो फिर भी दृष्टि जीवन की ओर उन्मुख होना चमत्कार है।

सत्य के निर्मल आकाश  को अनदेखा करके असत्य के भंवर का नित्य आलिंगन चमत्कार है।

इच्छाओं की अनंत अपूर्णता से पूर्णता की आस रखना चमत्कार है।

खेल का अंत पता होते हुए भी वही खेल खेलते जाना चमत्कार है।

अस्तित्व के सम्राट से उसका सानिध्य नहीं बल्कि  कंकड़ पत्थर मांगते रहना चमत्कार है।

उम्मीद पर दुनिया का कायम होना चमत्कार है। 

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शबरी

माँ शबरी की कथा से आम भारतीय परिचित है। भील समुदाय की एक वृद्ध स्त्री को श्री राम ने दर्शन दिए और नवधा भक्ति का उपदेश दिया । लेकिन शबरी शबरी कैसे बनीं ? उन्होंने ऐसी कौन सी पात्रता अर्जित कर ली जो समस्त शास्त्रों के ज्ञानी, प्रकांड विद्वान या प्रथापूजक भी अपने जीवनकाल में नहीं पा सके ?

शबरी शुद्ध और मुक्त विचार ,मुमुकक्षत्व और स्वतंत्रता की प्रतीक हैं। उनके सम्बन्ध में एक कथा और प्रचलित है। वह भील समुदाय से थीं । कहा जाता है कि अपने विवाह के समय उन्होंने अपने पिता से हज़ारों पशुओं के लाए जाने का कारण पूछा । तब उनको बताया गया कि विवाह के “शुभ” अवसर पर हज़ारों पशुओं  की बलि की प्रथा निभाई जानी थी । इस बात से वह अत्यंत खिन्न हो गयीं। उस समय उनके क्या भाव रहे होंगे ? ” यह कैसी मूर्खता है ? मेरे विवाह से इन निरपराध पशुओं की हत्या का क्या सम्बन्ध है ? ये कैसा उत्सव है ? ये कौन सी शुभता है जहाँ एक तरफ आरम्भ है और दूसरी तरफ इतने जीवनों का अंत किया जा रहा है ? इस प्रथा के रहने का लाभ तो इसके रक्षक ही जानें लेकिन मैं इस मूढ़ता का बोझ नहीं लूँगी।  हाँ मैं एक स्त्री हूँ , मेरा विवाह मेरे और मेरे परिवार के लिए बहुप्रतीक्षित क्षण है , फिर भी सर्वप्रथम मैं एक शुद्ध चेतना हूँ। मेरा अपना विवेक है। इन पशुओं का क्रंदन इन ढोल नगाड़ों पर हमेशा भारी पड़ेगा। ”  फिर उन्होंने गृह त्याग दिया और अपनी आत्मिकता की रक्षा के लिए एक दुर्गम मार्ग चुन लिया। वंचित समुदाय से होने के कारण उनको काफी समय भटकने के बाद अंततः  ऋषि मतंग के आश्रम में शरण मिली ।


माँ शबरी पूर्णतः राममय हो गयीं और ऋषि मतंग के कहे अनुसार प्रतिक्षण श्री राम के आने की प्रतीक्षा करने लगीं । अपने आराध्य की प्रतीक्षा करते रहना और सदैव सतर्क रहना – कि शायद यही क्षण हो , शायद आज , शायद आज। यही भक्ति की परम अवस्था है। यहाँ प्रतीक्षा दर्शन से भी ऊपर की अवस्था हो गयी।  
लेकिन आज भक्ति की नहीं शक्ति और स्वतंत्रता की बात करनी है। किसी चली आ रही प्रथा की औचित्यहीनता को समझना और फिर जीवन में ऐसी किसी मूर्खता का भागी ना बनना , यह आध्यात्मिक उन्नति और उच्च चेतना का द्योतक है। यह समझना कि निरीह पशुओं के वध का विवाह या किसी भी उत्सव से कोई सम्बन्ध नहीं है , फिर एक निर्णय से अपने जीवन की दिशा ही बदल देना , महानता का प्रतीक है। यह समझना कि एक सम्बन्ध जोड़ने के अवसर पर लाखों जीवों का प्राणों से सम्बन्ध तोड़ना हास्यास्पद है  , एक “जीवित” मनुष्य का लक्षण है। इसके अतिरिक्त एक स्त्री होते हुए , उस समय के परिवेश में स्वयं को एक चैतन्य का रूप समझकर निर्णय लेना भी अद्भुत रहा होगा। जो जीवन में मुक्त होना सीख लेता है वही मृत्योपरांत भी मुक्ति का अनुभव कर सकता है। जब मनुष्य पर्याप्त रूप से सुपात्र हो जाए तब ही शाश्वत सत्य रुपी श्री राम दर्शन देते हैं।

माँ शबरी का मातृत्व और भक्ति स्वरुप तो अतुलनीय है ही , उनका करुणा और विवेक युक्त व्यक्तित्व भी अनुकरणीय है। कहाँ तो आजकल के विवाह  निरीह पशुओं के भक्षण के बिना पूर्ण नहीं होते , और उस कालखंड में सामजिक रूप से पिछड़े समुदाय की एक महिला अपने मूल्यों की रक्षा के लिए विवाह ही नहीं करती और चली आ रही प्रथा की आग पर पानी डाल कर आगे बढ़ जाती है।
क्या आज ऐसा हो सकता है ? अत्यंत कठिन है। प्रथा का ठुकराया जाना तो बहुत आगे की बात है, उसकी निरर्थकता पर बात करना भी मनुष्य को अधार्मिक बना देता है। धर्म ही हिलने डुलने लगता है। एक और बात ध्यान देने योग्य है। श्री राम ने किसी तथाकथित उच्च वर्ग के विद्वान पुरुष को नहीं चुना।भील समुदाय की एक वृद्ध स्त्री , जिसने जीवन में विवेक ,करुणा और सत्य को प्राथमिकता दी , जिसने प्रथाओं के ऊपर हृदय को वरीयता दी ,परम सत्य के सगुण स्वरुप को आगे बढ़ने का मार्ग बताती है।

जिन “विद्वानों” को मानस की चौपाइयाँ बीच से उठा उठा के पढ़ने , अनुवाद और अर्थ (अनर्थ) करने में रूचि हो , वो शबरी प्रसंग तक भी जाएं , और तुलसीदास जी की अभिव्यक्ति की विराटता से अभिभूत हों। 



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तो कुछ बदले

कपड़ों नहीं ,किताबों की दुकान पर भीड़ हो तो कुछ बदले ,

सुनाने की नहीं ,सुन पाने की समझ हो तो कुछ बदले ,

गर्व की नहीं ,कर्म की वरीयता हो तो कुछ बदले ,

सड़क पर नहीं ,हृदय में धर्म हो तो कुछ बदले ,

पशु पर नहीं ,पशुता पर कटार चले तो कुछ बदले ,

मिटा देने की नहीं, सृजन की सनक हो हो कुछ बदले ,

अकेलेपन को अगर एकांत भर दे , तो कुछ बदले ,

अहं के अंधकार को प्रेम का प्रकाश हरे तो कुछ बदले ,

क्रूरता के कंटक चुभें, और भीतर करुणा के फूल खिलें तो कुछ बदले,

महत्वाकांक्षाओं के चक्रव्यूह से मुक्ति की एक किरण उठे तो कुछ बदले,

सुख दुःख की मरुभूमि में आनंद की वर्षा हो तो कुछ बदले,

लिप्तता का उछलापन नहीं ,असंगत्व का आकाश मिले तो कुछ बदले ,

परिवर्तन के साक्षी का अपरिवर्तनीय से मेल हो जाए , फिर कुछ बदले , या न बदले …

EKAANTANANDA

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अंतर्मुखी

जो कुछ जैसा है , जो जैसा है वैसा देखना कठिन है । कठिन है क्योंकि जो जैसा है ,वैसा यदि देख लिया तो मैं कैसा हूँ वह भी दिख जाएगा। जो कुछ जैसा है वैसा ही देख लिया तो मन में पड़ी मान्यताओं , स्मृतियों और भ्रांतियों का क्या होगा ?

समाज बिना द्वैत के नहीं चल सकता। व्यक्तियों को अलग-अलग समूह में विभक्त किए बिना “सामाजिक समझ ” का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। हमने लोगों के व्यक्तित्व को कुछ समूहों में बांट दिया । जो लोग अपनी बात कुछ कम कहते हैं , थोड़ा कम अभिव्यक्त करते हैं ,उन्हें हम कह गए अंतर्मुखी। दूसरे वालों को बहिर्मुखी या उभयमुखी कह दिया। परिभाषाएं बनती बिगड़ती रहीं।
दृष्टि अंदर हो या बाहर, दर्शन बाह्य हो या आंतरिक ,दृश्य का मूल्य दृष्टा पर ही निर्भर करता है।
ऐसे कौन से तत्व हैं जो किसी व्यक्ति को सामाजिक रुप से अंतर्मुखी बनाते हैं ? क्या व्यक्तित्व भी एक अवधारणा है , एक विचार है, एक परिभाषा मात्र है ?
जिसे सागर की प्यास है वह तालाब में क्या पाएगा ?
जिसे पक्षियों का संगीत पसंद है वह मनुष्यों के कृत्रिम शोर में क्यों सहज होगा ?
जहां योग्य श्रोता ही न हो वहां कोई क्यों कविता सुनाएगा ?
हंस कौवों के झुंड में क्या करेगा ?
जिसे ज्ञान की ज्योति ही रसपूर्ण लगे वह अज्ञान के तमस में क्यों रमेगा ?
भेद द्रष्टा का है , दृश्य वही है।
जो तुम देख सकते हो , जब वही दूसरा देख पाता है तो वह तुम्हारा मित्र हो जाता है। एक जैसी दृष्टि की बात है बस। कोई बालक है ,उसकी कुछ प्रवृत्तियां हैं ,विचार हैं ,अपनी अभिव्यक्ति है। उसके परिवार /मित्र किसी और तल पर हैं। अब यह बालक मन के तल पर अल्पसंख्यक हो गया। अब वह समाज के द्वारा अंतर्मुखी कहलाया जाएगा।
यही बालक जब कभी ऐसी परिस्थिति पाएगा जहां उसकी सहजता के प्रवाह को किसी बाँध ने न नियंत्रित किया हो , तो वो फूट पड़ेगा। उसकी अभिव्यक्ति का बीज अंकुरित हो उठेगा । यह स्थिति किसी भी तरह बन सकती है। गुरु के सानिध्य में , मनुष्य ,पशु /पक्षी , या प्रकृति के प्रेम में , या मौन/ध्यान की अवस्था में। जो बंद है ,उसके बाहर आने का द्वार चाहिए बस । अंतर्मुखी बहिर्मुखी बन जाता है। सभी भेद समाप्त हो जाते हैं।
समाज भी हतप्रभ हो जाता है। ऐसे कवि, विचारक, संत या महापुरुष प्रकट हो जाते हैं जो कुछ समय तक अज्ञात थे। बीज एकाएक वृक्ष का रूप ले लेता है। बीज को अपना सही स्वरूप पाने की परिस्थितियाँ मिल जाती हैं। संभावनाएं हमेशा से थी, बस अब बाँध टूट गया है। नदी समुद्र से मिल गई है। यही हाल मनुष्य की संभावनाओं का भी है। ऐसी संभावनाएं जो अमूर्त और अव्यक्त रूप से उसके भीतर हैं।
सत्संग में शब्दों से भी संवाद होता है और मौन में भी। कवि जो सदा से कहना चाह रहा था एकाएक बर्फ से ढकी चोटी के समक्ष कह देता है। पक्षियों की चहचहाहट के मध्य अभिव्यक्त कर देता है। सामाजिक तल पर जैसे ही अंतर्मुखी व्यक्ति सही स्थितियाँ पाता है तो उसका व्यक्तित्व असामाजिक से सामाजिक प्रतीत होने लगता है। इसी कारण से से देखने वालों को उभयमुखी व्यक्तित्व को परिभाषित करना पड़ा।
मदिरा के सानिध्य में भी में भी व्यक्ति का आचरण और व्यक्तित्व एकाएक बहिर्मुखी हो जाता है। यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है लेकिन यह प्रश्न है कि क्यों वह व्यक्ति मदिरा के संरक्षण के बिना अपने अवचेतन को सतह पर आने नहीं देता , और मदिरामय होकर एकाएक उपदेशक बन जाता है ?
क्या वजह है कि कोई व्यक्ति जो कुछ कह सकता था, कहना चाह रहा था, उसको कोई सुन नहीं रहा था ?

क्या कारण है कि अधिकांश व्यक्ति समाज द्वारा बनाये गए व्यक्तित्वों के ढाँचे के कारण अपनी आदर्श स्थितियां पा ही नहीं पाते ? वृक्ष बन ही नहीं पाते ?
सामान्य व्यक्ति के लिए मीरा अंतर्मुखी हैं। वह अपने प्रभु के प्रेम में लीन हैं। उनके लिए बाहरी जगत के प्रपंच अरुचिकर हैं। जैसे ही उनका भक्ति रस शब्दों का रूप लेता है और भजन लोगों के कान में पड़ते हैं, वही अंतर्मुखी व्यक्ति लोकलाज की चिंता न करते हुए प्रेम कि अभिव्यक्ति करता हुआ प्रकाश पुंज दिखने लगता है।
बस द्रष्टा का भेद है। बीज वही है। स्थितियों का भेद है।

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नववर्ष

वही पुराना व्यक्ति जब नए में प्रवेश करेगा तब कुछ नया कैसे हो पाएगा ? जब पुराने और नए की परिभाषा भी इसी व्यक्ति ने लिखी हो तब तो नया कुछ हो ही नहीं सकता।

कोई भी वर्ष तब तक नया लगता है जब तक दूसरा याद दिलाता रहे। बाहर से चिल्लाता रहे कि समय बदल गया है। जो नहीं हुआ अब होने का समय आ गया है। नया सामान खरीदने का , नए तरीके से उपभोग करने का , जो चाहो उसे पा लेने का , एक अच्छे जीवन की तरफ एक और पग बढ़ा देने का। लेकिन यह नयापन इतनी जल्दी बासी क्यों हो जाता है ? नववर्ष के दस दिन बीतते ही सब पुराना क्यों लगने लगता है ? क्योंकि समय परिवर्तित हुआ है यह किसी ने बाहर से बताया है। प्रसन्न होने का क्षण है यह भी कोई बाहर से समझा रहा है। वह बाहर वाला तो यह भी कह रहा है कि प्रसन्न होने पर क्या क्या किया जा सकता है वो भी तुम्हें वह ही बताएगा। उसको यह भी पता है कि तुम बस कुछ समय के लिए ही नए का स्वाद लेना चाहते हो। उसे पता है कि नया क्या है यह तुमको पता ही नहीं है। इसीलिए थोड़े शोरगुल के बाद वह भी शांत हो जाएगा और तुमको किसी और नए की प्रतीक्षा में लगा देगा। उसको पता है कि इस नए के अतिरिक्त कुछ और भी नया हो सकता है , ऐसा तुमको बोध ही नहीं है। उसे भी नहीं है।


मनुष्य कृत्रिम समय पर चलता है। आपस में ही निर्णय करके एक दूसरे को बधाई दे देता है और प्रसन्न होने के अवसर तय कर लेता है। उसकी पूरी दृष्टि ही बाहर है। पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनके भीतर अस्तित्व ने कुछ बिठा दिया है , जिससे वो हर क्षण को नयी दृष्टि से देखते हैं। उनके लिए हर क्षण ही नया है , दिन और वर्ष का तो कोई अस्तित्व ही नहीं। किसी पक्षी कि दिनचर्या से जीवन में जो भी सीखने योग्य है सीखा जा सकता है। उनकी चहचहाहट में जो उल्लास होता है वही मनुष्यों को नयेपन का अनुभव करा देता है। उनका संन्यास नैसर्गिक है। आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना , कल की चिंता न करना , एक एक क्षण का उपयोग करना और जीवन से भरपूर रहना। मनुष्य तो जब नये का उत्सव मनाता भी है तो वह उस क्षण का , उस अस्तित्व का , उस जीवन का उत्सव नहीं होता , अपितु वह एक उम्मीद का उत्सव होता है। एक आशा है कि आने वाला समय कुछ ऐसा लाएगा जो आज तक नहीं मिला , इसलिए आज प्रसन्न हो लो। यह उत्सव भी अकारण नहीं है , सशर्त है। नया वर्ष आ रहा है तो कुछ देके जाए , तभी उसका आना सार्थक है। इसी उम्मीद का आज उत्सव मना लें। और क्योंकि भविष्य कभी आता नहीं , इसलिए वो परिपूर्ण आनंद का क्षण भी आता नहीं। पशु पक्षी , संपूर्ण अस्तित्व यही दिखाता रहता है कि नया है तो अभी है। जो आएगा वो तो विचारों ने कब का पुराना कर दिया। मनुष्य तो वही है।

समय का चक्र तो उसी मन पर है जो भूत और भविष्य ,महत्वाकांक्षाओं , विचारधाराओं , इच्छाओं , विवशताओं और अधूरेपन से बना है। नया तभी होगा जब मनुष्य का पुनर्जागरण होगा। जागरण तभी होगा जब यह सब बोझ हटेगा। तब भीतर उस सरलता और उल्लास का उदय होगा जो प्रतिदिन सूर्य के आने पर संपूर्ण प्रकृति में होता है।

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आगे बढ़ो

किसी प्रियजन  के संसार छोड़ कर चले जाने के कुछ समय बाद ही बाहर से एक कोलाहल उठता है , “आगे बढ़ो ! ” अगर बाहर से नहीं आया तो अंदर से तो आ ही जाता है , “आगे बढ़ो , जो होना था हो गया। “


आने जाने का क्रम तो चलता रहता है। बूँद सागर को छोड़ कर आगे बढ़ जाती है ,संतान माता पिता को जीवन में आगे बढ़ने का औचित्य समझाकर और आगे बढ़ जाते हैं , या व्यक्ति विवश होकर अपने सत्य से ही आगे बढ़ जाता है।
जब यह बोध होता है कि जाने वाला अब कभी दर्शन नहीं देगा , तब असहनीय पीड़ा होती है। उस समय किसी तरह के ज्ञान का कोई अर्थ नहीं प्रतीत होता है। ह्रदय के केंद्र में पीड़ा रुपी शून्यता का एक केंद्र सा बन जाता है।  यह खालीपन दीर्घकाल तक रह सकता है। जो जितना जल्दी आगे बढ़ जाता है , वह इस घाव को उतनी जल्दी भर लेता है।


क्या आगे बढ़ने से पहले यह देख नहीं लेना चाहिए , कि जो आगे बढ़ गए , वह कहाँ तक पहुंचे ? कि अभी रास्ते में ही हैं ? उन असंख्य लोगों में कोई एक भी पहुँच पाया हो , तो स्वयं भी आगे बढ़ा जाए।
जब दृष्टि का सही उपयोग  किया तब देखा कि जो मार्ग सीधा लग रहा था वो वृत्ताकार था। तब ज्ञात हुआ कि आगे बढ़ना और सत्य से भाग जाना एक ही बात है। यदि व्यक्ति आगे बढ़े और उसी पुरानी बिंदु पर न पहुंचे तब बात बने। कहानी कुछ आगे बढ़े।  लेकिन कुछ अंतराल के पश्चात जब वही स्थिति फिर उत्पन्न हो जाए जिससे आगे बढ़ गए थे , तब तो कहीं भयंकर भूल हुई है। घूमते घूमते बार बार यहीं पहुँच जाना है।  मार्ग बनाने वाला भी यह देखकर आनंदित हो रहा है।


जीवन की विपरीत से विपरीत परिस्थितयों से निकल गए , जो गए उनका शोक मना लिया। फिर प्रसन्न हुए , गीत गए , उत्सव मनाये , सकारात्मक उपदेश दिए , उस क्षण के आनंद में लीन हो गए। लेकिन फिर तूफ़ान आया और उसी बिंदु पर लाकर पटक गया। पासे गिर गए। खेल फिर शुरू हुआ। क्या लाभ हुआ आगे बढ़ने का ?

क्या कोई खेल से पलायन कर सकता है ? इस वृत्त में घूमना बंद कर सकता है ? जब तक प्राण हैं यह खेल तो खेलना होगा। फिर किसी के जाने का कष्ट कैसे सहन किया जाए , आगे कैसे बढ़ा जाए ? खेल में प्रासंगिक कैसे रहा जाए ? क्या आगे बढ़ने का वास्तविक अर्थ समझा जाए ? सत्य को पकड़ा जाए और बाकी सब छोड़ दिया जाए ?


जब भी कोई संसार से गया , तब मैं भी गया। कहीं कुछ घटा , तब मेरे भीतर भी कुछ घटा। पहले नहीं दिखा , तो अब दिखा। जब कहीं कोई मृत्यु हुई , तब सत्य की अभिव्यक्ति हुई।
सत्य ने कहाँ कभी भेदभाव किया ? बुद्ध ने मृत्यु देखी , तो उन्हें भी  मृत्युतुल्य कष्ट की अनुभूति हुई। बस वही देखकर वह आगे बढ़ने का अर्थ समझ गए और आगे बढ़ गए।

जीवन जैसा है उसको वैसा ही देखने के लिए ग्रंथों के अनुवाद पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।  न ही तर्क का आश्रय लेकर अपनी विचारधारा श्रेठ सिद्ध करने का कोई औचित्य है। जो जैसा है , वही सनातन है। सत्य है। जब दिख जाए। मूढ़ भी इसी वृत्त में है , तथाकथित ज्ञानी भी। जीवन को समग्रता से देख लेना ही सही अर्थ में “देखना है ” , यहीं से शायद आगे बढ़ने का मार्ग मिले।
राम नाम बस जाने वाले के लिए सत्य नहीं था , वह तुम्हारे लिए भी है। तुम्हारे लिए ही है। बस राम ही है। वही सत्य है। जो रह गया उसके लिए अनुस्मारक है। देख लो , अभी देख लो , जी भर के खेल लो , और आगे बढ़ लो।  

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एकला चलो

कभी कहीं अकेले निकल जाओ। अकेले मतलब अपनी पहचान को अपने घर छोड़कर बस  निकल जाओ। वहां पहुंचो  जहां कोई तुमको  जानता नहीं। तुम कहां से हो, कब से हो, किस विचारधारा से बंधे  हो ,और किन बोझों से गिरे हो ,सब  पीछे छोड़ दो।

अकेले यात्रा करने का अपना आनंद है, स्वयं को भूलने की संभावना अधिक है। अपने कीमती सामान , कृत्रिम और सुरक्षित सामाजिक घेरे  से दूर किसी ऐसे स्थान पर पहुंचो जहां कोई सुरक्षा न हो।  सब कुछ सेवा में उपस्थित न हो। कहाँ रहेंगे क्या खाएंगे इस सबकी  कोई पूर्व निर्धारित  योजना न हो।  जहाँ चित्त में बैठे हुए बंधनों का कोई औचित्य न हो। अगर परिवार/ मित्रों या सामाजिक घेरे के साथ जाओगे  तो मंच के  सभी पात्र क्या पूरा का पूरा मंच ही उठ कर दूसरी जगह पहुंच जाएगा और नयी जगह वही पुराना नाटक  ही होगा ।

वैसे तुम भी पुराने ही हो।  वही  मन भी तुम लेकर ही जा रहे हो लेकिन फिर भी इस बार कुछ नया होने की संभावना रहेगी। यह एकांत कुछ पश्न करेगा।   बस पहुंच गए और कोई तैयारी नहीं। अस्तित्व के सामने प्रस्तुत ।  सब कुछ परमात्मा के हाथ में। वैसे भी था ही ,अब अपने आप को थोड़ा खुला छोड़ के भी देख लो । देख लो कि कुछ न भी किया जाए तब क्या होता है। स्वतः। अब इस यात्रा में जो भी अनुभव होंगे नवीन होंगे। अब देख लो कि तुम्हारा कौन सा रूप तुम्हारा है ? देख लो कि अपनी सामाजिक पहचान के आवरण के अभाव में तुम कितने स्वीकार्य हो? जहां गए हो वहां के लोग तुमको कैसा पाते हैं ? क्या तुम अपनी पहचान के बंधन के  बिना सांस ले पा रहे हो ? क्या जो भूखा कुत्ता तुम्हारे पीछे पीछे दरबारी की तरह चल रहा है तुम उसको पुचकार पाने की हिम्मत जुटा पा रहे हो ? यहाँ कोई नहीं देख रहा , यहाँ तुम अपनी करुणा को बहने दे सकते हो।  जब तुम उस सड़क के किनारे बैठकर उन अनजान लोगों के साथ आग का ताप ले रहे हो तब क्या तुम कुछ अधिक जीवित हो ?  उस दिन जब पहाड़ों के बीच से जो नया  सूर्योदय हो रहा है , उसकी किरणें किसको स्पर्श कर रही हैं ? क्या तुम्हारी सामाजिक पहचान को ? क्या यह हवा अलग है या तुम ही आज अलग हो ? क्या इन पत्तों का नृत्य आज अलग है या तुम आज ही देख पा रहे हो ? नहीं ,बस तुम जीवन को आज सजीव देख पा रहे हो।  यह अस्तित्व का नृत्य एकांत की तुमको भेंट है।

वापस जाते समय याद करो कि कितने अनजान लोगों ने निस्वार्थ भाव से तुमको फिर वापस आने को कहा ? कितनी बार तुमको अपनी पहचान और उसी मंच पर भाग जाने की उत्कंठा हुई ? क्या ये  नाटक तुमसे हो पाया , कि वही पुराना रटा रटाया वाला चलेगा ?  यदि प्रश्न भी उठे तो यात्रा सफल है। प्रश्न ही महत्वपूर्ण है। जिसने कहा उसको उत्तर मिल गए वह स्वयं को भ्रमित कर रहा है।

 एकांत की यात्रा ही महत्वपूर्ण है। कभी-कभी ही सही । जब तुम वापस जाओगे तो देखोगे कि नाटक वैसे का वैसा ही चल रहा है। तुम वापस न भी आते तो चलता ही रहता।  कभी रुका ही नहीं।  बस तुमको लगा कि तुमने शुरू किया। यहां भीड़ की कमी नहीं है। वही पागल दौड़ जारी है। अब फिर से दौड़ लो। लेकिन अलग जाना महत्वपूर्ण था। अपनी विक्षिप्तता का बोध भी उस परिचित परिधि के बाहर जाकर ही होगा । जहाँ सब भ्रमित हैं वहाँ तुम सबके जैसे ही रहे तभी सामान्य समझे जाओगे , लेकिन हैं तो सब भ्रमित ही। यह बोध ही पर्याप्त है।  यही यात्रा का उद्देश्य भी था। कोई और अवस्था और संभावना भी हो सकती है ,यह समझना ही ध्येय था।

अलग जाकर , दूसरे तल पर जाकर ही नए की संभावना जगती है। जब संभावना जाग जाये , तब भीड़ से भागने की भी आवश्यकता नहीं।  तब स्वयं का मन भी शत्रु नहीं। तब भीड़ में भी एकांत मिलेगा। एकांत में ही आनंद मिलेगा। कभी कभी अकेले निकलना चाहिए। और एक दिन यह अनुभूति होगी कि अकेले ही निकले हो  ।